आजादी की कहानी 2: देश के लिए आजाद हुए आजाद की सोच को सैल्यूट

चंद्रशेखर आजाद

आजादी की कहानी 2: इस बार देश आजादी का 75 वां स्वतंत्रता दिवस अमृत महोत्सव के रूप में मना रहा है। जो कि पूरे देश में हर-घर तिरंगा की मुहिम चलाई जा रही है। आजादी के लिए अपने प्राणों की परवाह किए वगैर देश पर हंसते-हंसते मिट गये ऐसी सभी महान शख्सियतों में से हम बात कर रहे हैं चंद्रशेखर आजाद की जो कि गर्म दल के क्रांतिकारियों की श्रेणी में आते थे।

आजादी के दीवानों का जब भी जिक्र होता है, तो आजाद का बड़े ही सम्मान के साथ नाम लिया जाता है। चंद्रशेखर आजाद अक्सर बोला करते थे- आजाद था, आजाद हूँ और आजाद रहूँगा।

मजिस्ट्रेट से आजाद ने क्या बोला था?

चंद्रशेखर आजाद का नाम सुनते ही लोगों के मन में ऐसी छवियां बनने लगती हैं। आजाद की मूछों पर भारतीयों के आत्मसम्मान का ताव और भारत माता के प्रति आत्मसमर्पण ऐसा कि आखिरी गोली से खुद की जान ले ली, क्योंकि आजाद हमेशा आजाद रहता है।

आजादी की कहानी 2: लेकिन ऐसी कई किस्से-कहानियां हैं, जो चंद्रशेखर आजाद को भारत के स्वाधीनता संग्राम में एक अलग स्थान दिलाता है। एक बार आजाद से जेल में अंग्रेज पूछताछ कर रहे थे तो इन्होंने अपने पिता का नाम स्वतंत्रता और पता जेल बताया था।

आजाद था, आजाद हूँ, आजाद रहूँगा

चंद्रशेखर आजाद ने एक बार स्वतंत्रता सेनानियों की बैठक में कहा था कि अंग्रेज कभी मुझे जिंदा नहीं पकड़ सकते हैं। इसके बाद जब अल्फ्रेड पार्क में उन्हें अंग्रेजों ने 27 फरवरी 1931 को घेरा तो आजाद ने पहले जमकर मुकाबला किया।

जब आजाद के पास आखिरी गोली बची, तो उन्होंने खुद की कनपटी पर पिस्तौल रख अपनी जान ले ली और वीरगति को प्राप्त हो गये। यहां से आजाद ने बच्चे-बच्चे के अंदर आजादी का वह बीज बोया जिसे अंग्रेज कभी जीते जी दबा नहीं सकते थे।

आजाद के जीवन की कहानी

चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को आदिवासी ग्राम भाबरा में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी था। वे उन्नाव जिले के बदर गांव के रहने वाले थे। आकाल पड़ने के कारण बाद में इनका परिवार भाबरा में बस गया।

यही से चंद्रशेखर आजाद की प्रारम्भिक जीवन की शुरुआत हुई। उन्होंने धनुष-बाण चलाना सीखा। बता दें कि इस गांव का नाम अब बदलकर चंद्रशेखर आजाद के नाम पर रख दिया गया है।

आजादी की कहानी 2: आजाद की बातें और उनका खुद को शहीद कर देना ही उनके आजादी पसंद होने का प्रमाण था। आपको जानकर हैरानी होगी कि जब आजाद मृत पड़े थे तब भी अंग्रेज उनके पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। जब उन्हें ये पता चल गया कि वो मृत हो चुके है तब अंग्रेज उनके पास गए और आजाद के मृत शरीर को गोली मारी।

आजाद ने प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर रहे थे, तभी सी.आई.डी का एस.एस.पी नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गई। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद ने तीन पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और कई अंग्रेज़ सैनिक घायल हो गए।

अंत में जब उनकी बंदूक में एक ही गोली बची तो वो गोली उन्होंने खुद को मार ली और वीरगति को प्राप्त हो गए। यह दुखद घटना 27 फ़रवरी 1931 के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गई।

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By Susheel Chaudhary

मेरे शब्द ही मेरा हथियार है, मुझे मेरे वतन से बेहद प्यार है, अपनी ज़िद पर आ जाऊं तो, देश की तरफ बढ़ते नापाक कदम तो क्या, आंधियों का रुख भी मोड़ सकता हूं ।