चीन-सोलोमन डील: चीन ने प्रशांत महसागर के सोलोमन नामक देश से डील की है जिसके बाद से ही अमेरिका,आस्ट्रलिया और न्यूजीलैंड जैसे सशक्त देशों की नींद उड़ी हुई है। बता दे कि अमेरिका,आस्ट्रलिया और न्यूजीलैंड का चिंता करना लाजिमी भी है। चीन ने सात लाख वाले देश सोलोमन से डील करके अमेरिका की चिंता बड़ा दी है। इस डील के अंतर्गत अब चीन इस द्वीप पर अपना मिलिट्री बेस बना सकता है।
चीन-सोलोमन डील: चीन का सोलोमन से सुरक्षा समझौता
सोलोमन द्वीप के प्रधान मंत्री ने सुरक्षा समझौते को लेकर कहा है कि यह समझौता हमारे क्षेत्र की शांति और सद्भाव को प्रतिकूल रूप से प्रभावित या कमजोर नहीं करेगा। हालंकि एक्सपर्ट्स इस बात को मानने से इनकार कर रहे हैं। मामले पर बारिकी नजर रख रहे विशेषज्ञों का कहना है कि चीन का यह कदम पूरे क्षेत्र में गेम चेंजर हो सकता है।
ऑस्ट्रेलिया नहीं चाहता था कि ये डील हो
सूत्रों की माने तो ऑस्ट्रलिया नहीं चाहता था कि चीन और सोलोमन की डील हो। ऑस्ट्रेलिया को लगता था कि वे इस डील को रोक सकता है क्योंकि ऑस्ट्रलिया सोलोमन द्वीप को हर वक्त और हर संभव मदद करता था। लेकिन ऑस्ट्रेलिया की ये कोशिश नाकाम साबित हुई। सोलोमन द्वीप ने ऑस्ट्रेलिया को भी मना कर दिया। सोलोमन द्वीप ने कहा है कि इस समझौते से क्षेत्र की शांति को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा। उन्होंने इस समझौते को देश के हित में लिया गया फैसला बताया है।
चीन-सोलोमन डील: चीन नौसैनिक अड्डा बना सकता है?
सूत्रो कि माने तो, समझौते के बाद चीन अपने युद्धक जहाजों को सोलोमन द्वीप के पोर्ट्स पर रख सकता है। इसके साथ ही शांति और सामजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए चीनी सुरक्षा बल को सोलोमन द्वीप में भेजा जा सकता है। विशेषज्ञों की मानी जाए तो कि पहले भी चीन ऐसा कर चुका है। बता दे कि चीन जिबूती में ऐसा कर चुका है। ऐसे में चीन को सोलोमन में सैन्य अड्डा बनाने में कोई बड़ी दिक्कत नहीं होने वाली है।
परेशान अमेरिका ने दोबारा खोला दूतावास
चीन-सोलोमन के बीच हुए समझौते से अमेरिका इतना परेशान हो गया कि उसने 29 सालों के बाद सोलोमन आइलैंड्स में फिर से अपने दूतावास को खोल लिया है। उसने ऐसा इसलिए किया कि उसको लगता है कि ये डील इस क्षेत्र को अस्थिर कर सकती है।
मामले की गंभीरता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है कि अमेरिका को 29 साल बाद अपने दूतावास को फिर से खोलना पड़ा है। इसके पीछे अमेरिका को डर है कि इस कदम के जरिए चीन प्रशांत क्षेत्र में अपनी उपस्थिति और बढ़ा देगा जैसा कि बीजिंग कुछ सालों से करता आ रहा है।