Gyanvapi Maszid Live: ज्ञानवापी का मसला आज कल सबकी जुबान पर छाया हुआ है। ज्ञानवापी मस्जिद में निकले शिवलिंग पर हिंदू पक्ष लगातार दावा कर रहा है कि ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग जिस जगह पर निकला है वहां पर पहले भव्य शिवालय हुआ करता था। बता दें कि हाल ही में ज्ञानवापी का वीडियो सर्वे हुआ था और उसमें 12 फीट लंबा शिवलिंग निकला था । लेकिन, मुस्लिम पक्ष शिवलिंग को शिवलिंग मानने से इंकार करता रहा है। उसका मानना है कि ये शिवलिंग नहीं है। बल्कि,फब्बारा है। भारत के मुस्लिम पक्ष के साथ भारत में रह रहे कुछ लिबरल मानते है कि है कि ये शिवलिंग नहीं फब्बारा है। और अब इन सबको आतंकियों का स्वर्ग कहे जाने वाले पाकिस्तान का भी समर्थन मिल गया है। और साथ में मुस्लिम देश ट्रकी और बंग्लादेश की मीडिया का भी समर्थन मिल रहा है। ये सब वैसे तो कहते है कि हम किसी देश के आंतरिक मसले पर कोई तीखा टिप्पणी नहीं करते है। लेकिन पाकिस्तान तो ऐसा देश है जो कि हमेशा से ही भारत के आंतरिक मसलों में टांग अड़ाता ही आया है। चाहे कश्मीर का मसला हो जब भारत ने धारा 370 हटायी थी या फिर हाल ही में यासीन मलिक को उम्र कैद की सजा का मामला हो उसके पेट में दर्द होता ही रहता है। पाकिस्तान के हुक्मरानों को लगता है कि दिन-रात भारत को भर-भर के कोसते रहेेंगे तो वे अपनी राजनीति को देश में चमकाते रहेंगे। पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आता है। और अब उसकी मीडिया भी बाज नहीं आ रही है। हम आपको बता दें कि ज्ञानवापी मामले में पाकिस्तानी, और टर्की की मीडिया ने घड़याली आंसू बहाने शुरू कर दिए है।
परत-दर-परत बताएंगे कि पाकिस्तानी और ट्रकी मीडिया ज्ञानवापी मामले में क्या कह रहा है। पाकिस्तानी मीडिया में आजकल अपनी आंतरिक समास्याओं से ज्यादा ज्ञानवापी पर चर्चा है रही। पाकिस्तान के प्रमुख अखबार डाॅन में लिखा गया है ज्ञानवापी मुद्दे को निचली अदालतों ने इस कस तरह के विवादों बढ़ानो का काम किया है।
Gyanvapi Maszid Live: अखबार ने लिखा है कि बाबरी मस्जिद को तोड़ने के लिए भी लोगों को जिला अदालत के फैसले ने ही उकसाया था। अयोध्या विवाद की सुनवाई करने वाले जस्टिस एस.यू. खान के एक बयान का हवाला देते हुए रिपोर्ट में लिखा गया है 1986 में उत्तर प्रदेश की एक जिला अदालत का ही परिणाम था जिसने पांच सालों बाद हिन्दुत्व कार्यकर्ताओं को अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिए उकसाया।
Gyanvapi Maszid Live:पाकिस्तान के अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने भी ज्ञानवापी मस्जिद मामले को लेकर कई रिपोर्ट प्रकाशित की है. अपनी एक रिपोर्ट में अखबार समाचार एजेंसी रॉयटर्स के हवाले से लिखता है, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद, उत्तर प्रदेश की कई मस्जिदों में से एक है, जिसके बारे में कुछ हिंदुओं का मानना है कि इसे मंदिरों को तोड़कर बनाया गया था।’
अखबार आगे लिखता है कि भारत के 20 करोड़ मुसलमानों के नेता मानते हैं कि इस तरह मस्जिद के अंदर सर्वेक्षणों को भाजपा की मौन स्वीकृति है। भाजपा के इस प्रयास को वो अपने धर्म को कमजोर करने के रूप में देखते हैं।
अपनी एक और रिपोर्ट में अखबार लिखता है, ‘ऐसे धार्मिक जगहों पर धार्मिक समुदायों के बीच भारत की आजादी के बाद से ही विवाद होता रहा है। लेकिन हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी सरकार के शासन में इस तरह की घटनाएं आम हो गई हैं। कट्टर हिंदू संगठनों ने पिछले कुछ हफ्तों में भारत के कुछ हिस्सों में विवादित स्थलों को लेकर स्थानीय अदालतों में कई मामले पेश किए हैं। मुसलमान इसे मोदी की सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा की मौन सहमति से उन्हें हाशिए पर डालने की कोशिश के रूप में देखते हैं।’
Gyanvapi maszid issue: बांग्लादेश के अखबार ‘द डेली स्टार’ ने समाचार एजेंसी एपी की एक रिपोर्ट के हवाले से लिखा है, ‘आलोचकों का कहना है कि इस तरह के मामले भारत के मुसलमानों की धार्मिक स्थानों के लिए खतरा पैदा करते हैं. मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर हाल के वर्षों में हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा लगातार हमले किए जा रहे हैं। ये हिंदू राष्ट्रवादी आधिकारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष भारत को एक हिंदू राष्ट्र में बदलना चाहते हैं।’
रिपोर्ट में आगे लिखा गया है कि हिंदू कट्टरपंथी दावा करते हैं कि मुगलों ने मध्यकाल में बहुत से मंदिरों को तोड़कर उस पर मस्जिद बनाए लेकिन इतिहासकारों का मानना है कि उस दौरान उतनी संख्या में मंदिरों को नहीं तोड़ा गया बल्कि केवल कुछ मंदिरों को ही तोड़ा गया था। संख्या को धार्मिक नहीं बल्कि राजनीतिक कारणों से बढ़ाकर बताया जाता है।
राजनीतिक विश्लेषक निलंजन मुखोपाध्याय की ज्ञानवापी पर की गई टिप्पणी को प्रमुखता से अपने अखबार मे जगह दी गई है। उसने ज्ञानवापी को लेकर कहा कि अदालतों में याचिकाओं की झड़ी लगाने का एक ही मकसद है कि मुस्लिमों को बताने का कि ‘कायदे में रहोगे तो फाएदे में रहोगे’ और अब ऐसा लगता है कि अदालतें न्याय को भूल कर सांप्रदायिकता को फैलाने का काम कर रही है।