Maharashtra NCP Political Crisis: महाराष्ट्र की राजनीति अक्सर चर्चा मे रहती है पहले उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे का विवाद हो या फिर अब एनसीपी में फूट का मामला है। पहले उद्धव ठाकरे को अपनी पार्टी और सिंबल से हाथ धोना पड़ा था। अब भी हालात कुछ ऐसे बन रहे है कि चाचा शरद पवार और भतीजे अजीत पवार के बीच शह मात का खेल चल रहा है। एक तरफ शरद पवार अपने सारे दांव खेलकर भतीजे अजीत को मात देने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे है। जैसे शिवसेना एकनाथ शिंदे की हो गई थी कही ऐसे ही एनसीपी अजीत पवार के हाथों में तो नहीं चली जाएगी।
Maharashtra NCP Political Crisis: आपको बता दे कि अजीत पवार ने चुनाव आयोग के सामने पार्टी और पार्टी के सिंबल का दावा ठोक दिया था। अब ऐसे में सवाल उठ रहा है कि असली वाली एनसीपी और चुनाव चिह्न घड़ी पर दावा किसका होगा? इसका फैसला चुनाव आयोग को करना है। असली एनसीपी वाले मसले पर टाइम्स ऑफ इंडिया में एक रिपोर्ट छपी है और राजनीतिक जानकार मान कर चल रहे है कि चुनाव आयोग साल 1971 में सादिक अली केस पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर फैसला कर सकता है।
Maharashtra NCP Political Crisis: आपको बता दें कि पूर्व चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा की माने तो साल 1971 के सादिक अली केस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के फैसले को कायम रखा था। कांग्रेस की टूट वाले मामले में चुनाव आयोग ने पार्टी का चुनाव चिह्न ‘जुए के साथ दो जोड़ा बैल’ जगजीवन राम वाले गुट को दे दिया था। टीओआई के मुताबिक सुनील अरोरा कहते हैं, “सादिक अली वाले केस का फैसला लगातार चुनाव आयोग के लिए लाइट हाउस की तरह रहा है।” वो आगे बताते हैं, “चुनाव चिह्न को लेकर विवाद होने पर इस फैसले ने तीन मौलिक मानदंड तय कर दिए थे।”
Maharashtra NCP Political Crisis: वो तीन मौलिक मानदंड हैं– पार्टी के लक्ष्यों और उद्देश्यों की जांच, पार्टी के संविधान की जांच और बहुमत की जांच… इसके बारे सुनील अरोरा बताते हैं, “पहले मानदंड के अनुसार चुनाव आयोग ये देखता है कि क्या कोई गुट पार्टी के लक्ष्यों और उद्देश्यों से भटका तो नहीं, जो उनके बीच मतभेदों के उभरने की मूल वजह है। दूसरे मानदंड में आयोग तय करता है कि क्या पार्टी उसके संविधान के हिसाब से चलाई जा रही है। तीसरे में ये देखता है कि गुटों के बीच विधायिका और पार्टी संगठनात्मक ढांचे में किसकी पकड़ ज्यादा मजबूत है।”
Maharashtra NCP Political Crisis: पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत कहते हैं कि “हालांकि तीन मानदंड जरूर हैं लेकिन केवल वही जो संदेह से परे एक स्पष्ट नतीजा देता है और वही पार्टी चिह्न के विवाद को तय करने के लिए लागू किया जाता है, बाकी को हटा दिया जाता है।” इसके पीछे की वजह बताते हुए वो आगे कहते हैं, “कई बार अलग–अलग गुट इतने सारे हलफनामे भेज देते हैं, जिन्हें जांचना संभव नहीं होता है।”
गौरतलब है कि पार्टी में फूट होने के स्थिति में पार्टियों का सिंबल किसके पास रहेगा इसका फैसला चुनाव आयोग द इलेक्शन सिंबल्स (रिजर्वेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर, 1968 के पैरा 15 के तहत करता है। चुनाव आयोग पार्टी में वर्टिकल बंटवारे यानी विधायक, सांसद और संगठन को देखता है। इसके अलावा पार्टी के टॉप कमेटियों और निर्णय लेने वाली बॉडी में किस गुट के कितने पदाधिकारी और सदस्य हैं। आयोग पार्टी के पदाधिकारियों और चुने हुए सासंद, विधायक, एमएलसी के समर्थन के आधार पर चिन्ह देने का फैसला करती है।
संगठन के अंदर यदि साफ नहीं हो रहा है कि किस गुट के पास समर्थन है, तो चुनाव आयोग सांसद और विधायकों के बहुमत के आधार पर फैसला करता है। वहीं, यदि चुनाव हो रहे हैं और पार्टी में बगावत हो रही है तो ऐसी परिस्थिति में चुनाव आयोग सिंबल को फ्रीज भी कर सकता है। चुनाव आयोग दोनों गुटों को अलग–अलग अस्थाई पार्टी सिंबल दे सकता है। एनसीपी की मौजूदा परिस्थिति की बात करें तो अजीत पवार गुट 53 में से 40 विधायकों के साथ होने का दावा कर रहा है। यदि ये दावा सही है तो पार्टी के 75 फीसदी विधायक अजीत पवार के साथ हैं।
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