Bhagwadgeeta : श्रीमद्भगवतगीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें जीवन की हर एक समस्या का हल छुपा है, आजकल के जीवन में एक बड़ी परेशानी है व्यक्ति का अपनी ही मन की इच्छाओं और इन्द्रियों पर काबू ना होना। एक बार की बात है कि अर्जुन घूमते घूमते देवराज इंद्र की नगरी अमरावती पहुंचे, जहां उन्होंने अस्त्र शस्त्र की ट्रेनिंग ली।
शस्त्र विद्या की ट्रेनिंग लेने के बाद देवराज इंद्र ने उन्हें संगीत और नृत्य कला की शिक्षा लेने की भी बात कही। अर्जुन ने देवराज इंद्र की बात मानते हुए संगीत और नृत्य की शिक्षा को शुरू किया।
अर्जुन जब गंधर्व चित्रसेन के पास नृत्य की शिक्षा ले रहे थे तब स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी ने उन्हें नृत्य करते हुए देखा। अर्जुन का मनमोहक रूप देख उर्वशी उनकी ओर आकर्षित हो गई, जिसके बाद उसने अर्जुन के पास जाकर उनसे विवाह की इच्छा जाहिर की। लेकिन अर्जुन ने उर्वर्शी के सामने हाथ जोड़कर कहा कि मैं आपके चरण स्पर्श करना चाहता हूं क्योंकि मैं आपको अपनी मां के समान मानता हूं।
अर्जुन का अपने मन और मस्तिष्क पर इतनी अच्छी तरह से काबू था कि स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा के विवाह प्रस्ताव को भी उन्होंने एक पल में ना सिर्फ अस्वीकार किया बल्कि उन्हें मां का दर्जा भी दे दिया। लेकिन महाभारत के युद्ध के समय एक ऐसा समय आया जब अर्जुन का भी अपने मन मस्तिष्क से कंट्रोल खोने लगा था। तब भगवान श्री कृष्ण ने युद्ध के दौरान अर्जुन को मार्गदर्शन प्रदान किया।
यदा संहरते चायं कूर्मोंऽग्नीङाव सर्वश: ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।
Bhagwadgeeta : इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके अपने खोल के भीतर खींच लेता है ठीक उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति जब ज़रूरत पड़ेगी तब अपनी इंद्रियों को इंद्रियविषयों से अलग कर लेता है।
जैसे कान एक इंद्रि है और उसका इंद्रियविषय है अपनी अच्छाई को सुनना और दूसरों की बुराई सुनना। इसी तरह से सभी इंद्रियों का अपना इंद्रियविषय होता है जिसके लोभ में व्यक्ति फंसा होता है। यहां पर भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों पर काबू करना सीख लेता है असल में वही बुद्धिमान होता है।
जो अपनी इंद्रियों को वश में रखे वह ही आदमी है। जो अपने मन और इंद्रिय का शमन नहीं कर सकता वह आदमी नहीं परिग्रही है। परिग्रही को हिंसा का दोष लगता ही है। क्योंकि परिग्रह हिंसा की संपादिका है। जो अपने मन की बुराइयों को निकाल लेता हैं उसके मूल गुणों की फसल लहलहाती है। अहिंसा धर्म का पालन तभी हो सकता है जब आप जीव रक्षा के भाव को 24 घंटे अपने मन में रखे। जिस स्त्रोत से जल लिया जा रहा है वह अहिंसा धर्म के पालन से ही लिया जाए तो आपके अहिंसा धर्म का पालन भी अच्छे से हो जाता है। जहां अहिंसा धर्म का प्रचार/प्रसार हो रहा है वहां कभी भी बाधक नहीं बनना चाहिए।
इंद्रियों को इंद्रियविषय से किस तरह अलग किया जाता है इसका उदाहरण रामायण में भगवान श्री राम के भाई भरत ने सामने रखा। भगवान श्री राम के वनवास जाने के बाद उनके पास पूरा अवसर था कि वो अयोध्या के सिंहासन पर बैठ कर राज करें। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, भगवान श्रीराम की चरण पादुकाएं उन्होंने सिंहासन पर रखी और स्वयं भी एक वनवासी की तरह जीवन बिताते हुए राज्य को चलाया। राजसी सुख के लोभ लालच को छोड़ सेवा धर्म को चुना। तो जो व्यक्ति समय और परिस्थिति के हिसाब से अपनी इंद्रियों को काबू कर सकता है वही असल में अपने जीवन में कुछ हासिल कर पाता है।
भगवद गीता का हमारे जीवन में क्या महत्व है ?
भगवद्गीता हमारा एक बेहद पवित्र ग्रंथ है, जिसमें जीवन मूल्यों के विषय में बताया गया है। भगवत गीता का मुख्य सिद्धांत है कि कर्म करते जाओ फल की आशा ईश्वर पर छोड़ दो। हमें बेहद बाहर भाता है। भगवद्गीता का उपदेश हमें निरंतर कर्म करने के लिए प्रेरित करता रहता है। भगवद गीता को पढ़ना हमें जीवन के बारे में सच्चाई से परिचित कराता है और अंधविश्वास और झूठी मान्यताओं से मुक्ति पाने में हमारी मदद करता है। गीता से प्राप्त ज्ञान हमारे संदेहों को दूर करता है और हमारे आत्मविश्वास का निर्माण करता है। गीता की शिक्षाएं हमें बताती हैं कि हम कार्य करने से पहले अच्छी तरह सोच लें।
भगवत गीता के अनुसार योग हमारे कार्यों को शुद्ध करने के लिए है, योग मन को नियंत्रित करता है और इंद्रियां और योग को भक्ति के साथ सर्वोच्चता से जोड़ता है। योग नतीजे या अंत परिणामों की अपेक्षा किए बिना निःस्वार्थ कार्यों का मार्ग है। धर्म के अनुसार आध्यात्मिक साधक कार्य करता है।
योग दुनिया में रहने का एक तरीका है और साथ ही आंतरिक शांति या मन की शांति बनाए रखता है, जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
written by swati
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